मूल श्लोक: 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
शब्दार्थ
- इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य — इन्द्रिय के विषय (इन्द्रियों के उद्दीपन के कारण उत्पन्न वस्तुएँ)
- राग — आकर्षण, लगाव
- द्वेषौ — द्वेष, द्वेषभाव, नफरत
- व्यवस्थितौ — स्थापित, स्थिर
- तौ — वे दोनों (राग और द्वेष)
- न वशम आगच्छेत् — वश में न आना चाहिए, नियंत्रण में न रहना चाहिए
- अस्य परिपन्थिनौ — इस मानव के मार्ग (जो आध्यात्मिक पथ पर है)
इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग और द्वेष होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि शरीर के इन्द्रिय और इन्द्रिय के विषयों के बीच राग और द्वेष की स्थिति बनी रहती है। जैसे इन्द्रिय पानी में लहर की तरह अपने विषयों की ओर आकर्षित होता है और उनसे द्वेष भी रखता है।
परन्तु, जो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान और योग के मार्ग पर है, वह इन दोनों (राग और द्वेष) के वश में नहीं होना चाहिए। ये भाव स्थिर रूप से व्यक्ति के भीतर रहते हुए भी उसे अपनी चेतना और विवेक से बाहर नहीं निकालने चाहिए।
यहाँ ‘परिपन्थिनौ’ से आशय है कि जो व्यक्ति धर्म, योग, और ज्ञान के पथ पर है, उसे अपने इन्द्रिय विषयों के प्रति लगाव और द्वेष से मुक्त रहना चाहिए।
यदि राग और द्वेष व्यक्ति को वश में कर लें, तो वह पथभ्रष्ट हो जाता है और आध्यात्मिक उन्नति में बाधा आती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक मानव मन की द्वैत प्रकृति को दर्शाता है — जहाँ इन्द्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष स्वाभाविक रूप से होते हैं।
किन्तु, कर्मयोग और ज्ञानयोग का उद्देश्य इन्हीं भावों से ऊपर उठना है। मनुष्य को इन्द्रिय विषयों के प्रति होने वाले लगाव और द्वेष के प्रभुत्व से मुक्त होकर आत्मा की ओर अग्रसर होना चाहिए।
यह एक उच्चतर आध्यात्मिक स्थिति की ओर संकेत है, जहाँ इच्छाएँ और नकारात्मक भाव दोनों नियंत्रित और संतुलित होते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इन्द्रियस्य इन्द्रियस्यार्थे — सांसारिक विषय और आकर्षण
- राग-द्वेष — सुख-दुःख के भाव, सांसारिक बंधन
- न वशम आगच्छेत् — आत्मा का स्वतंत्र, स्वायत्त होना
- परिपन्थिनौ — धर्म, योग और आत्मज्ञान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सांसारिक इच्छाएँ और नकारात्मक भाव मनुष्य की चेतना को भ्रमित करते हैं।
- योग का लक्ष्य है राग-द्वेष से ऊपर उठकर निष्पक्षता, समत्व और शांति प्राप्त करना।
- व्यक्ति को अपने इन्द्रिय विषयों के प्रति न राग करना चाहिए, न द्वेष, बल्कि विवेक और आत्मसंयम रखना चाहिए।
- यह स्थिति ही मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने राग-द्वेष को समझ पाता हूँ या वे मुझे नियंत्रित करते हैं?
क्या मैं अपनी इच्छाओं और नापसंद को अपने कर्म और सोच से ऊपर नहीं उठने देता?
क्या मैं आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की भांति राग-द्वेष के वश में न आने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं अपने मन और इन्द्रिय को संयमित और संतुलित रख पाता हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट कर रहे हैं कि राग और द्वेष जैसे भाव मनुष्य के इन्द्रिय विषयों के साथ जुड़े होते हैं, लेकिन जो व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर है, वह इन दोनों भावों का अपने ऊपर नियंत्रण कभी नहीं होने देता।
यह ज्ञान और योग की पहचान है — जहाँ इन्द्रिय विषयों के प्रति लगाव और द्वेष दोनों नियंत्रित रहते हैं, और मनुष्य अपनी चेतना से भटकता नहीं।
इस प्रकार, राग-द्वेष से परे उठकर समभाव और शांति का अधिग्रहण कर्मयोग का मूल उद्देश्य है।