मूल श्लोक 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥
शब्दार्थ
- नियतम् — नियत (निश्चित) / कर्तव्य
- कुरु — करो
- कर्म — कार्य / कर्तव्य
- त्वम् — तुम
- ज्यायः — श्रेष्ठ
- हि — निश्चय ही
- अकर्मणः — अकर्म (कुछ न करने से)
- शरीरयात्रा — शरीर का निर्वाह / जीवनयापन
- अपि — भी
- च — और
- ते — तुम्हारी
- न प्रसिद्ध्येत् — सिद्ध नहीं हो सकती / संभव नहीं हो सकती
- अकर्मणः — कर्म न करने से
इसलिए तुम्हें निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण भी संभव नहीं होगा।

विस्तृत भावार्थ
भगवद्गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्म की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि तुम अपने नियत कर्तव्य का पालन करो, क्योंकि कर्म न करना यानी निष्क्रियता न तो जीवन का समर्थन कर सकती है, न ही आध्यात्मिक उन्नति दे सकती है।
“नियतं कर्म” वह है जो किसी व्यक्ति के स्वधर्म (जाति, गुण और आश्रम के अनुसार) के अनुसार निर्धारित होता है। अर्जुन क्षत्रिय है, इसलिए उसका धर्म है — युद्ध करना, धर्म की रक्षा करना।
यदि कोई व्यक्ति निष्क्रिय रहता है, तो उसका शरीर भी ठीक से नहीं चल सकता — यानी साधारण जीवन निर्वाह भी असंभव हो जाता है। इसलिए कर्म से भागना केवल आलस्य और मोह है, जो आध्यात्मिक पतन का कारण बनता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्मयोग के आधारशिला के समान है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि कर्म ही जीवन का आधार है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जितना भी ज्ञानी क्यों न हो, शरीरधारण किए हुए बिना कर्म के नहीं रह सकता।
यहाँ “नियतं कर्म” उस कर्तव्य को दर्शाता है जो प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव और स्थिति के अनुसार निर्धारित है।
मुख्य बिंदु:
- निष्क्रियता (अकर्म) से न तो शरीर चलेगा और न ही आत्मा का विकास होगा।
- कर्मशीलता ही योग का मार्ग है।
- अपने स्वधर्म के पालन में ही व्यक्ति की मुक्ति निहित है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- नियतं कर्म — आत्मा का स्वधर्म
- अकर्मणः — आत्मग्लानि और मोहजन्य निष्क्रियता
- शरीरयात्रा — सांसारिक जीवन का संतुलन
- कर्म ज्यायः — कर्म से ही आत्मोन्नति संभव है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म से ही आत्मविकास होता है
- आलस्य और मोह से उत्पन्न निष्क्रियता पतन का मार्ग है
- जीवन के प्रत्येक कार्य को धर्मबुद्धि से करना ही सच्चा योग है
- केवल ध्यान या वैराग्य से नहीं, कर्म से ही आत्मा की शुद्धि संभव है
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने नियत कर्म को पहचानता हूँ?
क्या मैं मोहवश कर्म से बचने की चेष्टा करता हूँ?
क्या मेरी निष्क्रियता मेरी आत्मिक प्रगति में बाधा है?
क्या मैं कर्म को योग के रूप में देख पाता हूँ?
क्या मैं अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा से करता हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्क्रियता के मोह से निकालकर कर्म के महत्व को समझाते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि कर्म से ही जीवन और धर्म दोनों चलते हैं।
कर्म न केवल शरीर की यात्रा को संभव बनाता है, बल्कि आत्मा की गति और मुक्ति का साधन भी है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को अपने नियत कर्तव्य का पालन करना चाहिए — निष्काम भाव से, समत्व बुद्धि से।
यह कर्म की चेतना ही व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करती है और अंततः ब्रह्मनिर्वाण की ओर ले जाती है।