मूल श्लोक: 35
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥
शब्दार्थ
- यत् — जो
- ज्ञात्वा — जान लेने के बाद
- न पुनः — फिर नहीं, दोबारा नहीं
- मोहम् — भ्रम, अज्ञानता, मोह-बंधन
- एवं — इस प्रकार
- यास्यसि — तुम जाओगे, प्राप्त करोगे
- पाण्डव — हे पांडु के पुत्र (अर्जुन के लिए संबोधन)
- येन — जिसके द्वारा
- भूतानि — जीव, प्राणी, समस्त प्राणी जगत्
- अशेषेण — संपूर्ण रूप से, बिना किसी कमी के
- द्रक्ष्यसि — देखोगे
- आत्मनि — अपने स्वयं के स्वरूप में, आत्मा में
- अथ — और भी
- मयि — मुझमें, परमात्मा में
इस मार्ग का अनुसरण कर और गुरु से ज्ञान को प्राप्त करने पर, हे अर्जुन! तुम कभी मोह में नहीं पड़ोगे क्योंकि इस ज्ञान के प्रकाश में तुम यह देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंश हैं और वे सब मुझमें स्थित हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह गूढ़ रहस्य बताते हैं कि जिस ज्ञान को प्राप्त कर लिया, वह मोह और भ्रम का अन्त कर देता है।
भगवान कहते हैं कि जैसे ही कोई व्यक्ति इस दिव्य ज्ञान को समझता है और आत्मसाक्षात्कार करता है, वह पुनः संसार के मायाजाल में नहीं फंसता।
यह ज्ञान व्यक्ति को सब प्राणियों में एकता देखने की शक्ति देता है — जहाँ वह सब जीवों को अपने आत्मा के स्वरूप में पहचानता है।
अतः जो व्यक्ति यह समझ जाता है कि सब प्राणी और परमात्मा, दो नहीं, अपितु एक ही हैं, वह अपनी आत्मा और परमात्मा में द्रष्टा बन जाता है।
इस प्रकार, वह ज्ञान उसे मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करता है जहाँ उसे पुनः भ्रम नहीं होता।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
मोह से मुक्ति का मार्ग
‘मोह’ का अर्थ है भ्रम, अज्ञान, जो जीव को संसार के बंधनों में बांधता है।
जब कोई व्यक्ति परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब वह मोह के जाल से बाहर निकल जाता है।
ज्ञान के प्रकाश में, संसार की अस्थिरता और माया का भान हो जाता है।
इस प्रकार, मोह का अन्त हो जाता है और मनुष्य मुक्त हो जाता है।
समस्त जीवों में एकात्मता का दर्शन
यह ज्ञान हमें सभी जीवों को अपने भीतर ही देखने की शक्ति प्रदान करता है।
‘द्रक्ष्यस्य आत्मनि’ का अर्थ है सब जीवों का आत्मस्वरूप में देखना।
यह दर्शन अद्वैत वेदांत का सार है, जहाँ जीव, आत्मा और परमात्मा के बीच कोई द्वैत नहीं माना जाता।
इस ज्ञान से मनुष्य में सहिष्णुता, करुणा और प्रेम की भावना उत्पन्न होती है क्योंकि वह सबमें एक ही आत्मा को देखता है।
परमात्मा में अभिन्नता का अनुभव
‘मयि’ का अर्थ है परमात्मा में।
यह ज्ञान अर्जुन को यह अनुभूति कराता है कि जीव और ईश्वर में कोई भेद नहीं।
जीव जो कि आत्मा है, वह परमात्मा का अंश है।
जब यह अनुभूति हो जाती है, तब व्यक्ति संसार के प्रति आसक्ति त्याग देता है और मोक्षमार्ग पर चल पड़ता है।
ज्ञान का अनुभव
‘यज्ज्ञात्वा’ — जिस ज्ञान को जान लिया जाए, वह ज्ञान आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध की सम्यक् दृष्टि है।
यह ज्ञान केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, अपितु अनुभूत ज्ञान है जो हृदय में होता है।
जो इस ज्ञान को प्राप्त करता है, वह ‘न पुनः मोह’ के क्षेत्र में प्रवेश करता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- अद्वैत वेदांत के अनुसार जीव और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं है।
- मोह से मुक्ति ज्ञान से संभव है, जो सर्वभूतात्मत्व की अनुभूति कराता है।
- मोह का कारण अज्ञान है; ज्ञान से यह अज्ञान समाप्त हो जाता है।
- मोक्ष की प्राप्ति इसी ज्ञान के द्वारा होती है, जहाँ पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है।
- मनुष्य जब समस्त जीवों को आत्मा में देखता है, तब उसे सभी के प्रति करुणा और प्रेम उत्पन्न होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
प्रतीक | अर्थ |
---|---|
मोह | अज्ञान, भ्रम, संसारिक आसक्ति |
ज्ञात्वा | ज्ञान प्राप्त कर लेना |
भूतानि | समस्त जीव, जीव-जंतु |
आत्मनि | स्वयं के आत्मस्वरूप में |
मयि | परमात्मा में |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- संसार के मोह और भ्रम से मुक्ति पाने के लिए परम सत्य का ज्ञान आवश्यक है।
- सभी जीवों में आत्मा की एकरूपता को समझना चाहिए।
- यह ज्ञान करुणा और सर्वभूतैः मैत्री की भावना को उत्पन्न करता है।
- जब हम सबमें ईश्वर को देखेंगे, तब हम सभी के साथ समान व्यवहार करेंगे।
- मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने भीतर इस ज्ञान को उतारें और कर्मबन्धन से ऊपर उठें।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैंने कभी इस प्रकार के दिव्य ज्ञान को समझा है?
क्या मैं संसार की अस्थायी वस्तुओं में फंसकर भ्रमित तो नहीं हो रहा हूँ?
क्या मैं सभी जीवों को आत्मा के रूप में देख पाता हूँ?
क्या मैं अपने अंदर परमात्मा का अनुभव कर सकता हूँ?
क्या मेरा जीवन इस ज्ञान के अनुरूप चल रहा है, जिससे मैं मोह से मुक्त हो सकूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह गहन सत्य बताते हैं कि जो व्यक्ति परमात्मा के इस दिव्य ज्ञान को जान लेता है, वह पुनः संसार के मोह और भ्रम में नहीं पड़ता।
यह ज्ञान समस्त जीवों में एकत्व का अनुभव कराता है, जहाँ जीव, आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता।
इस प्रकार, ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है, जो हमें पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त करता है।
यह श्लोक हमें यह प्रेरणा देता है कि हमें अपने भीतर इस ज्ञान की खोज करनी चाहिए और अपने जीवन में उसे स्थिर करना चाहिए।
इस ज्ञान के प्राप्ति से हम संसार की माया से परे जाकर परम आनंद और शांति को अनुभव कर सकते हैं।