मूल श्लोक – 15
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥15॥
शब्दार्थ (शब्दों का संक्षिप्त अर्थ)
- न आदत्ते — नहीं ग्रहण करता, नहीं लेता
- कस्यचित् — किसी का भी
- पापम् — पाप, बुरा कर्म
- न च एव — और नहीं भी
- सुकृतम् — पुण्य, शुभ कर्म
- विभुः — सर्वव्यापी परमात्मा
- अज्ञानेन — अज्ञान के द्वारा
- आवृतम् — ढँका हुआ, आच्छादित
- ज्ञानम् — ज्ञान, सत्य का बोध
- तेन — उसी कारण
- मुह्यन्ति — मोहित होते हैं, भ्रम में पड़ते हैं
- जन्तवः — प्राणी, जीव
सर्वव्यापी परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को लिप्त नहीं करते। किन्तु जीवात्माएँ मोहग्रस्त रहती हैं क्योंकि उनका आत्मिक ज्ञान अज्ञान से आच्छादित रहता है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह स्पष्ट करते हैं कि परमात्मा न किसी जीव के पापों को अपने ऊपर लेता है, न पुण्यों को। वह न तो किसी का कर्मफल बदलता है, न ही पक्षपात करता है। वह केवल साक्षी और नियंता है, कर्ता नहीं।
लेकिन जब जीव अज्ञान से ढँक जाता है, तब उसे यह दिखाई नहीं देता कि असल में वह आत्मा है — शुद्ध, बुद्ध, मुक्त। वह अपने को शरीर, मन और कर्मों से जोड़ लेता है और भ्रम (मोह) में पड़ जाता है। यही मोह उसे जन्म-मरण के चक्र में बाँध देता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भ्रम
यह श्लोक वेदांत के अकर्तृत्व (non-doership) और अभोक्तृत्व (non-enjoyership) सिद्धांत की पुष्टि करता है। आत्मा न करता है, न भोक्ता है — यह सब बुद्धि और शरीर के माध्यम से प्रकृति करती है। - परमात्मा साक्षी है, हस्तक्षेपकारी नहीं
विभु — सर्वव्यापक परमात्मा — केवल साक्षी है। वह न हमारे अच्छे कर्मों का फल अपने ऊपर लेता है, न बुरे का। हर जीव को उसके अपने कर्मों का फल मिलता है — यह कर्म का शाश्वत सिद्धांत है। - अज्ञान का पर्दा
अज्ञान ही आत्मज्ञान को ढँक देता है, और इसी कारण जीव स्वयं को देह, मन, अहंकार आदि से जोड़ लेता है। यह जुड़ाव ही उसके पाप-पुण्य का कारण बनता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- नादत्ते कस्यचित् पापम् — परमात्मा निष्पाप है और किसी के पाप को ग्रहण नहीं करता।
- न च सुकृतम् — वह किसी के पुण्य का भी स्वामी नहीं है।
- विभुः — जो सबमें व्याप्त है, पर किसी में भी लिप्त नहीं है।
- अज्ञान — आत्मा की वास्तविक स्थिति को न जानना, अंधकार।
- ज्ञानम् आवृतम् — ज्ञान का अज्ञान से ढँक जाना, जैसे सूर्य बादलों से ढँक जाए।
- मुह्यन्ति जन्तवः — यह मोह ही जन्म-मरण, सुख-दुख, राग-द्वेष का कारण बनता है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- परमात्मा केवल साक्षी है, कर्ता नहीं
— वह हमारे कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करता, न फल बदलता है। - हमारे कर्मों का फल हमें ही भोगना होता है
— न तो परमात्मा हमारे पुण्यों का श्रेय लेता है, न पापों का दंड। - अज्ञान ही बंधन का कारण है
— आत्मा का स्वरूप शुद्ध है, परंतु अज्ञान के कारण वह बंधन में पड़ती है। - ज्ञान के आवरण को हटाना ही मोक्ष की कुंजी है
— जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेती है, तब वह मोह से मुक्त हो जाती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने पापों और पुण्यों के लिए दूसरों या परमात्मा को दोष देता हूँ?
क्या मैं जानता हूँ कि मेरे कर्मों का फल मुझे ही भोगना है?
क्या मैंने अज्ञान के कारण अपने को देह और मन से जोड़ा हुआ है?
क्या मैं आत्मा के रूप में अपनी स्वतंत्र और शुद्ध सत्ता को पहचानता हूँ?
क्या मैं ज्ञान के आवरण को हटाने के लिए साधना कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण हमें यह गहन ज्ञान देते हैं कि परमात्मा अकर्ता, अभोक्ता और निरपेक्ष है। वह न तो पक्षपात करता है, न हस्तक्षेप। यह जीव ही है जो अपने कर्मों के बंधन में फँसता है, और उसका कारण है — अज्ञान।
जब तक अज्ञान का पर्दा नहीं हटता, तब तक जीव मोह में फँसकर जन्म-मरण और सुख-दुख के चक्र में घूमता रहता है। यही अज्ञान ही सारे सांसारिक क्लेशों की जड़ है।
इसलिए आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा साधन है — जिससे हम यह जान सकें कि हम पाप-पुण्य से परे, शुद्ध चैतन्य आत्मा हैं।