मूल श्लोक – 19
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥19॥
शब्दार्थ
- यथा — जैसे
- दीपः — दीपक, दीप
- निवातस्थः — वायु रहित स्थान में स्थित
- न एङ्गते — हिलता नहीं, डोलता नहीं
- सा उपमा स्मृता — वही उपमा (उदाहरण) मानी गई है
- योगिनः — योगी का
- यतचित्तस्य — जिसका चित्त संयमित है
- युञ्जतः — योगाभ्यास में लीन
- योगम् आत्मनः — अपने आत्मा के साथ योग का अभ्यास करने वाले की
जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक की ज्योति झिलमिलाहट नहीं करती उसी प्रकार से संयमित मन वाला योगी आत्म चिन्तन में स्थिर रहता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यान की चरम स्थिति को एक अत्यंत सुंदर उपमा द्वारा समझाया है — “दीपक की स्थिर लौ”।
इसमें तीन प्रमुख बिंदु स्पष्ट किए गए हैं:
- निवातस्थ दीपक — जब दीपक को ऐसी जगह रखा जाता है जहाँ हवा न हो, तो उसकी लौ स्थिर और अडोल रहती है।
- यह चित्त की पूर्ण स्थिरता का प्रतीक है।
- साधक का मन अब इंद्रियों, इच्छाओं, और बाह्य आकर्षणों से प्रभावित नहीं होता।
- यतचित्तस्य योगिनः — यह अवस्था उस योगी की होती है जिसने अपने चित्त को संयमित कर लिया है।
- चित्त की चंचलता समाप्त हो चुकी होती है।
- मन अब “वृत्तियों” से मुक्त है, और “एकाग्रता” में स्थिर है।
- युञ्जतः योगम् आत्मनः — यह योगी अपने आत्मा से योग कर रहा है, अर्थात आत्मसाक्षात्कार की दिशा में पूरी तरह समर्पित है।
- वह केवल ध्यान का अभिनय नहीं कर रहा, वह “साक्षात योग” में लीन है।
जैसे लौ स्थिर है, वैसे ही उसका चित्त भी स्थिर है।
यही है ध्यान की परिपक्व अवस्था — साक्षात समाधि।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने ध्यान की पूर्णता को व्यक्त किया है — जब मन का एक-एक भाग आत्मा की ओर मुड़ जाता है।
- लौ का स्थिर होना केवल एक दृश्य उपमा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्थिरता का प्रतीक है।
- ध्यान में साधक जब इस स्थिति तक पहुँचता है, तो उसके भीतर और बाहर की हलचल समाप्त हो जाती है।
- यह स्थिरता सिद्धि का संकेत है — साधना अब फल देने लगी है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / उपमा | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
दीपक | साधक का शरीर और जीवन |
लौ | साधक का चित्त, चेतना |
निवात स्थान | वासनाओं और विकर्षणों से रहित स्थिति |
न हिलना | मन की पूर्ण स्थिरता, एकाग्रता |
योगाभ्यास | आत्मा में चित्त को स्थिर करने की प्रक्रिया |
सोपमा | यह उपमा बताती है कि ध्यान में क्या चरम लक्ष्य है — पूर्ण चित्त स्थिरता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ध्यान केवल आँखें बंद करने का अभ्यास नहीं, मन को अचल बनाना है।
- जब तक मन चंचल है, तब तक साधना अधूरी है।
- चित्त की स्थिरता बाहरी अभ्यासों से नहीं, अंतः अनुशासन और निरंतर अभ्यास से आती है।
- दीपक की तरह हमें अपने भीतर की लौ को हवाओं (वासना, मोह, क्रोध) से बचाना होता है।
- यही साधक की सफलता की निशानी है — स्थिर चित्त, शांत चित्त।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा चित्त ध्यान में स्थिर रहता है, या बार-बार विषयों में चला जाता है?
- क्या मैंने अपने ध्यान की प्रगति को “दीपक की लौ” जैसा अनुभव किया है?
- क्या मेरा मन इंद्रियों और वासनाओं से प्रभावित होता है?
- क्या मैं बाहरी चंचलता से भीतर की स्थिरता की ओर अग्रसर हूँ?
- क्या मेरा योग केवल क्रिया है, या आत्मा से एकत्व की यात्रा?
निष्कर्ष
यह श्लोक ध्यान की उस अवस्था की व्याख्या करता है जहाँ साधक का चित्त दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण इस उपमा के माध्यम से हमें यह बताते हैं कि:
“स्थिर चित्त ही सच्चे योगी की पहचान है।
जिस प्रकार दीपक वायुरहित स्थान में बिना डोले जलता है,
उसी प्रकार आत्मा में स्थिर मन, परम योग में स्थित होता है।”
यह स्थिरता कोई साधारण स्थिति नहीं — यह समाधि की पूर्व अवस्था है, जहाँ साधक और साध्य एकाकार होने के द्वार पर खड़े हैं।
योग की यात्रा का यही वह मुकाम है, जहाँ चित्त पूर्ण शांति में होता है — न आगे कुछ चाहिए, न पीछे कुछ शेष है।
केवल “मैं और आत्मा” का मिलन — यही है परम योग।