मूल श्लोक – 11
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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बलम् | बल, शक्ति |
बलवताम् | बलवानों का |
च अहम् | और मैं (भगवान) |
काम-राग-विवर्जितम् | कामना और राग (आसक्ति) से रहित |
धर्म-अविरुद्धः | धर्म के विरुद्ध नहीं, धर्म के अनुकूल |
भूतेषु | सभी प्राणियों में |
कामः | काम (इच्छा), सृजन की प्रवृत्ति |
अस्मि | मैं हूँ |
भरतर्षभ | हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन)! |
हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवान पुरुषों का काम और आसक्ति रहित बल हूँ। मैं वो काम हूँ जो धर्म या धर्म ग्रंथों की आज्ञाओं के विरुद्ध नहीं है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण दो प्रमुख दिव्य गुणों में अपनी उपस्थिति का उल्लेख करते हैं:
1. “बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्”
- मैं बलवानों का बल हूँ — लेकिन ऐसा बल जो कामना (इच्छा) और राग (आसक्ति) से मुक्त हो।
- यह बल सात्विक शक्ति का प्रतीक है — वह शक्ति जो धर्म के लिए, सेवा के लिए, आत्म-नियंत्रण और कर्तव्य के पालन हेतु प्रयोग होती है।
- यह बल निरहंकारी, आत्मनिष्ठ, और उद्दीप्त होता है — न कि वासना, क्रोध, लोभ से प्रेरित।
2. “धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि”
- मैं वह काम (इच्छा या सृजनशक्ति) हूँ जो सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल होता है।
- यह सृजनात्मक प्रवृत्ति, प्रेम, उत्पत्ति की इच्छा और सही दिशा में प्रेरणा है — जो जीवन को गतिशील बनाती है।
भगवान यह स्पष्ट कर रहे हैं कि इच्छा और बल दोनों तब दिव्य हैं जब वे धर्म के अनुरूप हों।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि:
- न तो शक्ति (बल) बुरी है और न ही इच्छा (काम)।
वे तब विकृत हो जाते हैं जब उनमें आसक्ति और अधर्म प्रवेश करता है। - काम को अक्सर दोषपूर्ण माना जाता है, परंतु “धर्माविरुद्ध काम” — जैसे संतानोत्पत्ति, ईश्वर प्राप्ति की लालसा, सेवा की इच्छा — यह भी भगवान का स्वरूप है।
- शक्ति का सही उपयोग और इच्छाओं का शुद्ध रूप ही आध्यात्मिक जीवन की नींव हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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बल | आत्मबल, साहस, संकल्प, पराक्रम |
बलवताम् | वे जो शक्ति के अधिकारी हैं — न केवल शारीरिक, बल्कि आत्मिक रूप से भी |
कामरागविवर्जितम् | इच्छा और आसक्ति से रहित — शुद्ध, निर्विकारी बल |
धर्माविरुद्ध काम | सृजन, प्रेम, सेवा, साधना की पवित्र प्रेरणाएँ |
भरतर्षभ | श्रेष्ठ पुरुष — अर्जुन के माध्यम से सभी साधकों को संबोधन |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- शक्ति का मूल्य तब है जब वह स्वार्थ से रहित और धर्मानुकूल हो।
- इच्छा भी दोष नहीं, यदि उसका स्रोत और उद्देश्य शुद्ध हो।
- जीवन में बल और प्रेरणा दोनों आवश्यक हैं, पर उन्हें धर्म और संयम में बाँधकर रखा जाना चाहिए।
- जब हम कामनाओं से ग्रसित नहीं होकर कर्तव्य की भावना से कार्य करते हैं, तब हम ईश्वर से जुड़े रहते हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा बल और पराक्रम किसी इच्छा या राग से प्रेरित है, या धर्म से?
- क्या मैं अपनी कामनाओं को धर्म के अनुसार संयमित करता हूँ?
- क्या मैं शक्ति का प्रयोग सेवा के लिए करता हूँ या स्वयं के स्वार्थ के लिए?
- क्या मेरी इच्छाएँ मुझे ईश्वर से जोड़ती हैं या संसार में फँसाती हैं?
- क्या मैं अपने भीतर के बल और प्रेरणा में भगवान का अनुभव करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से बल और काम को शुद्ध, सात्विक और ईश्वरमय बनाने का मार्ग बताते हैं:
“मैं वह शक्ति हूँ जो कामनारहित है,
और वह प्रेरणा हूँ जो धर्म से विरुद्ध नहीं है।”
यह श्लोक एक मूल्यवान दिशासूचक है —
न इच्छा त्याज्य है, न शक्ति त्याज्य है,
परंतु दोनों को जब धर्म में बांधा जाता है, तो वे ईश्वरस्वरूप बन जाते हैं।
धर्म से युक्त शक्ति और इच्छा ही सच्चा योग है।