Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 7, Sloke 16

मूल श्लोक – 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिंदी अर्थ
चतुर्विधाःचार प्रकार के
भजन्तेभजते हैं, पूजा करते हैं, ईश्वर का स्मरण करते हैं
माम्मुझे (भगवान को)
जनाःलोग, मनुष्य
सुकृतिनःपुण्यकर्मी, शुभ कर्म करने वाले
अर्जुनहे अर्जुन!
आर्तःदुखी, पीड़ित व्यक्ति
जिज्ञासुःजानने की इच्छा रखने वाला
अर्थार्थीधन या लाभ चाहने वाला
ज्ञानीतत्वज्ञान से युक्त व्यक्ति
भरतर्षभहे भरतवंशी श्रेष्ठ अर्जुन!

हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी भक्ति में लीन रहते हैं: आर्त अर्थात पीड़ित, ज्ञान की जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु, संसार के स्वामित्व की अभिलाषा रखने वाले अर्थार्थी और जो परमज्ञान में स्थित ज्ञानी हैं।

विस्तृत भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि सभी भक्ति करने वाले एक जैसे नहीं होते।
उनके भक्ति के पीछे के प्रेरणास्त्रोत अलग-अलग होते हैं, परंतु यदि वे सच्चे हृदय से भक्ति करते हैं, तो वे सुकृतिनः — पुण्य आत्मा कहलाते हैं।

1. आर्त (दुखी)

  • जो किसी कष्ट, रोग, विपत्ति या संकट में होते हैं और भगवान को पुकारते हैं
  • उनका उद्देश्य मुक्ति नहीं, दुख से राहत होती है।

2. जिज्ञासु (जिज्ञासा रखने वाला)

  • जो सत्य को जानना चाहते हैं, जैसे: “ईश्वर कौन हैं? आत्मा क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है?”
  • यह साधक प्रारंभिक ज्ञान मार्ग का प्रतिनिधि है।

3. अर्थार्थी (धन, शक्ति, पद या लाभ चाहने वाला)

  • जो सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान की भक्ति करते हैं
  • यद्यपि यह निम्नतर स्तर है, फिर भी यह आध्यात्मिक यात्रा का एक पड़ाव बन सकता है।

4. ज्ञानी (तत्वज्ञानी)

  • जो ईश्वर को ही लक्ष्य मानते हैं, जिनका प्रेम निस्वार्थ होता है।
  • ऐसे भक्त मुक्ति की ओर अग्रसर होते हैं। अगले श्लोक (17) में भगवान उन्हें “सर्वोत्कृष्ट” कहते हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक मानव मन की विविध अवस्थाओं को स्वीकार करता है।
  • भक्ति केवल तब ही नहीं होती जब हम पूर्ण ज्ञानी हों — बल्कि जब हम दुःख में हों, प्रश्नों से भरे हों या इच्छाओं से प्रेरित हों, तब भी हम भगवान से जुड़ सकते हैं।
  • ईश्वर सभी के साथ हैं, चाहे कारण कोई भी हो –
    जो सच्चे मन से पुकारता है, भगवान उसे स्वीकार करते हैं।

प्रतीकात्मक अर्थ

भक्त प्रकारप्रतीक
आर्तदुःख से प्रेरित भक्ति – हृदय की पुकार
जिज्ञासुबुद्धि से प्रेरित भक्ति – खोज की चिंगारी
अर्थार्थीइच्छा से प्रेरित भक्ति – आशाओं का सहारा
ज्ञानीआत्मा से प्रेरित भक्ति – सच्चा समर्पण

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • भक्ति में प्रवेश का द्वार कहीं से भी खुल सकता है – दुःख, प्रश्न, इच्छा या ज्ञान से।
  • भगवान सभी प्रकार के भक्तों को स्वीकार करते हैं, परंतु उनका उद्देश्य है कि भक्त अंततः ‘ज्ञानी’ बनें
  • जब भक्ति लोभ, भय या संकट से ऊपर उठकर प्रेम बन जाती है, तब वह मोक्ष का साधन बनती है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. मैं किस श्रेणी का भक्त हूँ – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी या ज्ञानी?
  2. क्या मेरी भक्ति केवल इच्छाओं की पूर्ति तक सीमित है?
  3. क्या मैं ईश्वर को प्रश्न पूछने की हिम्मत रखता हूँ?
  4. क्या मैं दुःख में ही ईश्वर को याद करता हूँ या हर अवस्था में?
  5. क्या मैं अपनी भक्ति को धीरे-धीरे ज्ञानी स्तर तक ले जा रहा हूँ?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह सिखाते हैं कि —

“भक्ति के मार्ग में प्रवेश का कोई भी कारण हो —
यदि हृदय सच्चा है, तो ईश्वर स्वीकार करते हैं।”

ईश्वर को केवल पूर्ण ज्ञानी ही नहीं, दुखी, जिज्ञासु और इच्छुक भी प्रिय होते हैं —
यदि वे सच्चे भाव से उन्हें पुकारते हैं।

भक्ति का प्रारंभ चाहे जैसे हो,
पर अंततः उसे ज्ञानी भाव में बदलना ही उसका चरम लक्ष्य है।

यही इस श्लोक का आध्यात्मिक संदेश है।

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