मूल श्लोक – 18
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिंदी अर्थ |
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उदाराः | महान, उदार |
सर्वे एव | निश्चय ही सभी |
एते | ये (चारों प्रकार के भक्त) |
ज्ञानी | तत्वज्ञानी, आत्मज्ञानी |
तु | परंतु |
आत्मा एव | आत्मस्वरूप ही |
मे मतम् | मेरी दृष्टि में |
आस्थितः | स्थित हुआ |
सः | वह (ज्ञानी) |
हि | निश्चय ही |
युक्तात्मा | एकाग्रचित्त, मुझमें स्थित |
माम् | मुझे (भगवान को) |
एव | ही |
अनुत्तमाम् | श्रेष्ठतम, परम |
गतिम् | लक्ष्य, गति |
वास्तव में वे सब जो मुझ पर समर्पित हैं, निःसंदेह महान हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं और स्थिर मन वाले हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि मुझमें विलय कर दी है और जो केवल मुझे ही परम लक्ष्य के रूप में देखते हैं, उन्हें मैं अपने समान ही मानता हूँ।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण भक्ति की ऊँचाई और उसका चरम लक्ष्य स्पष्ट करते हैं:
- उदाराः सर्व एवैते — सभी भक्त, चाहे वे किसी भी कारण से भगवान को भजें, श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे पुण्यकर्मी हैं।
- ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् — ज्ञानी भक्त को भगवान अपने ही तुल्य मानते हैं। वह केवल भगवान को जानने या पाने नहीं आया, वह जान चुका है कि भगवान और आत्मा एक हैं।
- आस्थितः स हि युक्तात्मा — ज्ञानी का मन और आत्मा पूरी तरह से ईश्वर में लीन होता है।
- मामेवानुत्तमां गतिम् — वह केवल भगवान को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य मानता है, न किसी भौतिक सुख या स्वर्ग की प्राप्ति को।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक भक्ति और ज्ञान का अद्वैत संगम प्रस्तुत करता है।
- ज्ञानी, जो भगवान को तत्त्व रूप से जानता है और उनमें लीन हो जाता है, उसे भगवान स्वयं “मेरा स्वरूप” कहते हैं।
- यह अवस्था केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में ईश्वर की अनुभूति से प्राप्त होती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | अर्थ / प्रतीक |
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उदार | ईश्वर से जुड़ने वाला कोई भी भक्त |
ज्ञानी | जो ईश्वर को केवल जानता नहीं, जीता है |
आत्मा एव | ईश्वर के साथ पूर्ण एकत्व की अवस्था |
युक्तात्मा | ईश्वर में स्थिर चित्त |
अनुत्तमा गतिः | मोक्ष, ब्रह्मलीन अवस्था |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सभी प्रकार की भक्ति सम्माननीय है, चाहे उसकी प्रेरणा कुछ भी हो।
- किंतु साधना का उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम धीरे-धीरे ज्ञानी अवस्था की ओर अग्रसर हों।
- ज्ञानी वह है जिसे न कुछ चाहिए, न कुछ छोड़ना है — बस ईश्वर में जीना है।
- जब भक्त और भगवान के बीच का भेद समाप्त हो जाता है — वही भक्ति की परिपूर्णता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी भक्ति केवल इच्छाओं और समस्याओं के समाधान तक सीमित है?
- क्या मैं भगवान को केवल “साधन” मानता हूँ या उन्हें ही “परम लक्ष्य”?
- क्या मेरी साधना मुझे धीरे-धीरे ज्ञान और एकत्व की ओर ले जा रही है?
- क्या मैं निरंतर चित्त को ईश्वर में स्थिर करने का अभ्यास कर रहा हूँ?
- क्या मैंने यह समझ लिया है कि परम गति केवल भगवान ही हैं?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण एक अत्यंत उच्च आध्यात्मिक सत्य को प्रकट करते हैं —
ज्ञानी भक्त ही उनके लिए आत्मस्वरूप है।
यह भक्ति की वह अवस्था है जहाँ भक्त और भगवान के बीच कोई भेद नहीं रह जाता।
वह भक्त न सुख चाहता है, न सिद्धि — केवल भगवान को ही।
– यही सच्ची और पूर्ण भक्ति है।