मूल श्लोक – 20
कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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कामैः | इच्छाओं द्वारा, कामनाओं से |
तैः तैः | उन-उन (विभिन्न) |
हतज्ञानाः | ज्ञान से भ्रष्ट हुए, विवेकहीन व्यक्ति |
प्रपद्यन्ते | शरण लेते हैं, समर्पण करते हैं |
अन्यदेवताः | अन्य देवताओं की (ईश्वर के अतिरिक्त) |
तं तं | उसी-उसी (विशेष देवता को) |
नियमम् | विधि-विधान, धार्मिक नियम |
आस्थाय | अपनाकर, अनुसरण करके |
प्रकृत्या | अपनी प्रकृति के अनुसार |
नियताः | प्रेरित, बाध्य |
स्वया | अपनी ही (प्रकृति द्वारा) |
वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में उन व्यक्तियों का वर्णन कर रहे हैं जो ईश्वर की एकत्वता को न पहचानकर विविध देवताओं की पूजा करते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि ऐसा तब होता है जब व्यक्ति का विवेक वासनाओं से ढँक जाता है। जब कामनाएँ बुद्धि पर हावी हो जाती हैं, तब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप, आत्मा और परमात्मा के संबंध की पहचान नहीं कर पाता।
ऐसे व्यक्ति भले ही धार्मिक दिखें, परंतु उनका उद्देश्य भौतिक लाभ, सिद्धियाँ, सुख आदि होता है — इसलिए वे उन-उन देवताओं की पूजा करने लगते हैं जिनसे उन्हें तत्कालिक फल की आशा हो।
यह पूजा अक्सर विधि-विधान और नियमों पर आधारित होती है, लेकिन उसका उद्देश्य आत्मज्ञान या मोक्ष नहीं होता, बल्कि सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति होता है। ऐसे लोग अपनी ही स्वाभाविक प्रकृति, वासना और संस्कारों से प्रेरित होकर ऐसा करते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि:
- मनुष्य की भक्ति की दिशा उसकी आंतरिक वृत्तियों और वासना-प्रधान प्रवृत्तियों से निर्धारित होती है।
- जब तक वासनाएं सक्रिय हैं, तब तक भक्ति सत्तात्मक नहीं होती, बल्कि राजस या तामस हो सकती है।
- “अन्यदेवताः” प्रतीक हैं उन बाह्य साधनों के, जिनकी शरण व्यक्ति लेता है जब वह आत्मा और परमात्मा के मूल संबंध से विमुख हो जाता है।
- इस श्लोक में यह संकेत भी है कि सच्ची भक्ति वही है जो स्वार्थरहित हो और ज्ञान से प्रेरित हो।
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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कामैः हतज्ञानाः | वासनाएं विवेक का हनन कर देती हैं |
अन्यदेवताः प्रपद्यन्ते | बाह्य शक्तियों, भौतिक वस्तुओं, सिद्धियों आदि की पूजा |
तं तं नियमम् आस्थाय | परंपरागत विधियों का पालन, किन्तु आत्मबोध रहित |
प्रकृत्या नियताः स्वया | मन की प्रवृत्तियां ही दिशा तय करती हैं |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- भक्ति तभी सच्ची होती है जब वह ज्ञान से प्रेरित हो।
- केवल नियमों का पालन और पूजा विधियाँ आत्मबोध का मार्ग नहीं हैं, जब तक उनका उद्देश्य शुद्ध न हो।
- वासना प्रेरित पूजा व्यक्ति को वास्तविक ईश्वर की ओर नहीं, बल्कि स्वार्थ और मोह की ओर ले जाती है।
- आत्मज्ञान के अभाव में व्यक्ति अनेक देवताओं के पीछे भागता है, लेकिन परमात्मा को नहीं पहचान पाता।
- मनुष्य को अपनी प्रकृति को परखकर उसे साधन बनाना चाहिए, बाधा नहीं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी भक्ति किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए है, या वह निष्काम है?
- क्या मैं ईश्वर की वास्तविक सत्ता को जानने का प्रयास कर रहा हूँ या केवल परंपरा का अनुसरण कर रहा हूँ?
- क्या मेरी साधना ज्ञान पर आधारित है या केवल रिवाजों पर?
- मेरी प्रकृति मुझे ईश्वर के पास ले जा रही है या संसार की ओर?
- क्या मैं केवल विधियों में उलझा हूँ या ईश्वर की अनुभूति में रुचि है?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि जब मनुष्य कामनाओं से ग्रस्त हो जाता है, तो उसका विवेक नष्ट हो जाता है और वह परम सत्य से भटककर अनेक देवताओं की पूजा में लग जाता है। उसकी भक्ति तब नियमों और विधियों की परिधि में रह जाती है — आत्मबोध और मोक्ष से दूर।
भगवान संकेत देते हैं कि ऐसी पूजा में गहराई नहीं होती, क्योंकि उसका मूल उद्देश्य आत्मिक विकास नहीं, भौतिक इच्छाओं की पूर्ति होती है।
सच्ची भक्ति तब होती है जब व्यक्ति अपनी प्रकृति को साधकर, ज्ञान और समर्पण के साथ एकत्व की अनुभूति करता है — तब वह “वासुदेवः सर्वम्” को अनुभव करता है।