Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 7, Sloke 21

मूल श्लोक – 21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिन्दी अर्थ
यो योजो भी
यां यांजिस-जिस (देवी-देवता को)
तनुम्रूप, शरीर, देवता
भक्तःभक्त
श्रद्धयाश्रद्धा से
अर्चितुम्पूजना, उपासना करने के लिए
इच्छतिइच्छा करता है
तस्य तस्यउसी-उसी (भक्त के अनुसार)
अचलाम्स्थिर, दृढ़
श्रद्धाम्श्रद्धा
ताम् एववही
विदधामिप्रदान करता हूँ, स्थापित करता हूँ
अहम्मैं

भक्त श्रद्धा के साथ स्वर्ग के देवता के जिस रूप की पूजा करना चाहता है, मैं ऐसे भक्त की श्रद्धा को उसी रूप में स्थिर करता हूँ।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक ईश्वर की सर्वग्राह्यता और मानव मनोविज्ञान की सूक्ष्म समझ को प्रकट करता है।

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि:

  • प्रत्येक जीव की प्रवृत्ति भिन्न है।
  • लोग भिन्न-भिन्न रूपों में, भिन्न देवताओं, रूपों, मूर्तियों या प्रतीकों में ईश्वर को पूजते हैं।
  • यह उनकी श्रद्धा और प्रवृत्ति के अनुसार होता है।

भगवान यह नहीं कहते कि यह गलत है, बल्कि वे स्वयं उस श्रद्धा को स्थिर और अचल कर देते हैं।

अर्थात् —
ईश्वर स्वयं हर जीव की भावना का सम्मान करते हैं, और उसके अनुसार उसकी भक्ति को पुष्ट करते हैं।

यह श्लोक दर्शाता है कि:

  • ईश्वर केवल एक ही हैं, परन्तु उनके अनंत रूपों को लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार पूजते हैं।
  • जो भक्त जिस रूप में उन्हें पाना चाहता है, वे उसी रूप में उसकी श्रद्धा को मजबूत कर देते हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक दर्शाता है कि सभी पूजाएँ, यदि श्रद्धा से युक्त हों, तो वे एक ही परम तत्व की ओर ले जाती हैं।
  • भगवान श्रद्धा को ही प्राथमिकता देते हैं, न कि उस श्रद्धा का विषय किस रूप में है।
  • यह अद्वैत दर्शन और सगुण भक्ति दोनों को समाहित करता है —
    • रूपों की विविधता केवल साधन है।
    • लक्ष्य एक ही है — परमात्मा

इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर किसी विशेष रूप या मत के बंधन में नहीं हैं,
बल्कि वे स्वयं भक्त की श्रद्धा के अनुसार मार्ग बनाते हैं।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
तनुंकिसी भी रूप में ईश्वर की कल्पना — मूर्ति, देवता, विचार, प्रतीक आदि
श्रद्धयाशुद्ध भाव, विश्वास, समर्पण
अचला श्रद्धाडगमग न होने वाली निष्ठा, जो साधक को एकाग्र करती है
विदधाम्यहम्ईश्वर की कृपा जिससे श्रद्धा फलदायी और स्थायी बनती है

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • श्रद्धा का कोई भी स्वरूप यदि ईमानदार और निष्ठापूर्वक है, तो ईश्वर उसे स्वीकार करते हैं।
  • विभिन्न धर्म, संप्रदाय, देवता आदि केवल मार्ग के भिन्न रूप हैं, परम लक्ष्य एक ही है।
  • यदि मन सच्चे भाव से जुड़ा हो, तो ईश्वर उस साधना को स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाते हैं।
  • भक्त की भीतर की भावना ही प्रमुख है, बाहरी रूप गौण है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मेरी श्रद्धा किसी रूप विशेष तक सीमित है या परम तत्व की ओर अग्रसर है?
  2. क्या मेरी भक्ति में गहराई है या केवल अनुष्ठानिक परंपरा?
  3. क्या मैं दूसरों के पूज्य रूपों को सम्मान देता हूँ?
  4. क्या मेरी श्रद्धा स्थिर और अडिग है?
  5. क्या मैं यह समझता हूँ कि भगवान मेरे भाव के अनुसार मुझे मार्ग देते हैं?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह स्पष्ट करते हैं कि:

“भक्त जिस रूप की श्रद्धा करता है, मैं स्वयं उसकी श्रद्धा को दृढ़ और स्थिर करता हूँ।”

इसका अर्थ है कि ईश्वर किसी सीमित संकल्पना तक सीमित नहीं हैं,
बल्कि वे हर हृदय में, हर भावना में, हर रूप में स्वयं को प्रकट करने में समर्थ हैं।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि:

  • श्रद्धा का सम्मान करें।
  • विविधता में एकता को पहचानें।
  • किसी की सच्ची भक्ति को छोटा न समझें — वह भी उसी परमात्मा की ओर बढ़ रही है।

ईश्वर वही हैं, लेकिन श्रद्धा के अनुसार वे रूप बदलते हैं —
और हर रूप में वही परम सत्य विराजमान होता है।

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