मूल श्लोक – 9
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
---|---|
पुण्यः गन्धः | पवित्र सुगंध |
पृथिव्याम् | पृथ्वी में |
च | और |
तेजः | तेज, प्रकाश |
च | और |
अस्मि | मैं हूँ |
विभावसौ | अग्नि में |
जीवनम् | जीवन शक्ति, प्राण |
सर्वभूतेषु | सभी प्राणियों में |
तपः | तपस्या, संयम |
च | और |
अस्मि | मैं हूँ |
तपस्विषु | तपस्वियों में, तप करने वालों में |
मैं पृथ्वी की शुद्ध सुगंध और अग्नि में दमक हूँ। मैं सभी प्राणियों में जीवन शक्ति हूँ और तपस्वियों का तप हूँ।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने विराट स्वरूप के विशिष्ट अंशों को प्रकट करते हैं —
वह कैसे प्रकृति, जीवन और आचरण के सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल रूपों में व्याप्त हैं।
1. “पुण्यो गन्धः पृथिव्यां”
– भगवान कहते हैं: मैं पृथ्वी की पवित्र सुगंध हूँ।
– यह केवल माटी की भीनी गंध नहीं, बल्कि वह गुणात्मक ऊर्जा है जो पृथ्वी में जीवन देती है, जैसे गंध (सुगंध) जो सृजन का संकेत देती है।
2. “तेजश्चास्मि विभावसौ”
– मैं अग्नि में तेज हूँ — वह शक्ति जो प्रकाश, गर्मी, और रूपांतरण करती है।
– अग्नि केवल भौतिक नहीं, वह ज्ञान, प्रेरणा और आत्मशुद्धि का भी प्रतीक है।
3. “जीवनं सर्वभूतेषु”
– मैं सभी प्राणियों में जीवन हूँ — वह चेतन शक्ति जो जड़ को जीव बनाती है।
– यह प्राणशक्ति, भगवान की परा प्रकृति का सीधा प्रस्फुटन है।
4. “तपश्चास्मि तपस्विषु”
– मैं तपस्वियों के तप में हूँ — अर्थात जो व्यक्ति संयम, त्याग, और साधना करता है, उसमें भगवान की ही शक्ति व्यक्त होती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्भावना को जड़ और चेतन दोनों में अनुभव कराने वाला है।
- भगवान केवल मंदिरों में नहीं — वह धरती की गंध में, अग्नि के तेज में, जीवन की साँस में और तपस्या की अग्नि में हैं।
- यह दृष्टिकोण हमें बताता है कि यदि हम सजग हों, तो हर क्षण ईश्वर का अनुभव संभव है — क्योंकि वह सबके भीतर, सब रूपों में प्रकट हैं।
यह श्लोक भक्तियोग और साकार अद्वैत का संगम है —
जहाँ हर वस्तु में भगवान का एक दिव्य अंश देखा और अनुभव किया जा सकता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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पुण्य गन्ध | जीवन में शुद्धता, सरलता और श्रद्धा का सुवास |
तेज (अग्नि में) | ज्ञान, प्रकाश, आंतरिक ऊर्जा और रूपांतरण की शक्ति |
जीवन | चेतना, आत्मा, जो सभी में समान रूप से व्याप्त है |
तप (तपस्वियों में) | आत्मसंयम, आत्मत्याग, साधना — जो व्यक्ति को दिव्यता की ओर ले जाता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हर वस्तु में भगवान को देखने की आंतरिक दृष्टि विकसित करें।
- जब आप मिट्टी की सुगंध महसूस करें, अग्नि का ताप देखें, श्वास का आभास करें, या किसी तपस्वी का तेज देखें — उसमें ईश्वर का दर्शन करें।
- जीवन का अर्थ केवल जीवित रहना नहीं — भगवान को जीवन के हर क्षण में पहचानना है।
- तप केवल कठिन साधना नहीं, वह जीवन की शुद्धता, अनुशासन और उद्देश्य से भी आता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं प्रकृति की छोटी-छोटी अनुभूतियों में भगवान को अनुभव करता हूँ?
- क्या मैं अपने जीवन को ईश्वर के रूप में देख पाता हूँ?
- क्या मेरी साधना और तप में भगवत्सत्ता प्रकट हो रही है?
- क्या मैं भगवान को केवल मूर्ति या मंदिर तक सीमित मानता हूँ, या उनके व्यापक स्वरूप को समझने का प्रयास करता हूँ?
- क्या मेरी दृष्टि इतनी परिपक्व हुई है कि मैं हर जीव और प्रकृति तत्व में परमात्मा को पहचान सकूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं —
मैं ही पृथ्वी की पवित्र सुगंध हूँ, अग्नि की ज्वाला हूँ, प्राणियों में जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।
यह श्लोक एक प्रकार से ईश्वर की सर्वव्यापकता और सूक्ष्म उपस्थिति का उद्घोष है।
भगवान हमारे चारों ओर हैं — उनकी अनुभूति किसी एक रूप में नहीं, हर रूप में है।
जो इस सत्य को समझ लेता है, वह हर पल भक्ति में, हर कर्म में योग में, और हर अनुभव में दर्शन में जीता है।