मूल श्लोक – 7
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
---|---|
तस्मात् | अतः, इसलिए |
सर्वेषु कालेषु | सभी समयों में, हर क्षण |
माम् | मुझे (भगवान को) |
अनुस्मर | निरंतर स्मरण कर, बार-बार ध्यान कर |
युध्य | युद्ध कर, कर्म कर |
च | और |
मयि | मुझमें |
अर्पित | समर्पित |
मनोबुद्धिः | मन और बुद्धि |
माम् एव | केवल मुझे |
एष्यसि | प्राप्त करोगे, आओगे |
असंशयम् | इसमें कोई संदेह नहीं है |
इसलिए सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो, अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो तब तुम निचित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं — चूंकि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है (जैसा पिछले श्लोकों में कहा गया), तो यह स्मरण केवल अन्त समय तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि हर समय होना चाहिए।
इसलिए “सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर” — हर क्षण भगवान को याद करना चाहिए।
परन्तु केवल ध्यानस्थ होकर बैठने की बात नहीं है, इसलिए भगवान आगे कहते हैं — “युध्य च” — अपने कर्तव्य को भी निभाओ।
भक्ति और कर्म का यह समन्वय गीता का मूल संदेश है।
यदि व्यक्ति जीवनभर ईश्वर को समर्पित मन और बुद्धि से कर्म करता है, तो मृत्यु का क्षण भी उसे प्रभु की ओर ही ले जाएगा — यह निश्चित (असंशयम्) है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्मयोग और भक्ति योग का श्रेष्ठतम संतुलन है। यह बताता है कि:
- ईश्वरस्मरण केवल ध्यान में नहीं, बल्कि कर्म में भी संभव है।
- जीवन में व्यस्त रहते हुए भी ईश्वर को नहीं भूला जाए, यही योगयुक्त जीवन है।
- यदि मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पित कर दी जाएँ, तो कोई भी कर्म बंधन नहीं बनता, वह भक्ति बन जाता है।
इस श्लोक में “मनः” और “बुद्धिः” दोनों का समर्पण महत्वपूर्ण है:
- मन — भावना, स्मरण, प्रेरणा
- बुद्धि — विवेक, निर्णय, मार्गदर्शन
जब ये दोनों ईश्वर को समर्पित हो जाते हैं, तब साधक का जीवन कर्तव्य+भक्ति का योग बन जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति / शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
तस्मात् सर्वेषु कालेषु | हर क्षण, हर स्थिति में ईश्वर को याद करना |
माम् अनुस्मर | केवल मेरा निरंतर स्मरण — अनन्य भक्ति |
युध्य च | जीवन के कर्तव्यों को निभाते रहो, कर्म मत छोड़ो |
मय्यर्पित मनोबुद्धिः | अपनी सारी प्रेरणा, विवेक और चेतना ईश्वर को समर्पित करना |
मामेव एष्यसि | अंततः मुझे ही प्राप्त करोगे — यह आत्मा की चरम गति है |
असंशयम् | यह निष्कलंक सत्य है — इसमें कोई भ्रम या संदेह नहीं |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- केवल मृत्यु के समय स्मरण नहीं, हर क्षण भगवान का स्मरण आवश्यक है।
- कर्तव्य और भक्ति एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं — वे एक ही मार्ग के दो अंग हैं।
- मन और बुद्धि को ईश्वर को समर्पित कर देने से, हर कर्म योग हो जाता है।
- जीवन की सफलता केवल कर्म में नहीं, उस कर्म की भावना और चेतना में है।
- जब साधक की अंतःचेतना ईश्वरमय हो जाती है, तो उसे मोक्ष निश्चित है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा मन हर समय ईश्वर का स्मरण करता है, या केवल संकट में?
- क्या मैं अपने कार्यों में ईश्वर को समर्पण का भाव लाता हूँ?
- क्या मेरी बुद्धि और निर्णय ईश्वर की ओर उन्मुख हैं?
- क्या मैं अपने धर्म और कर्तव्य को ईश्वर की सेवा मानता हूँ?
- क्या मेरी साधना “मामेव एष्यसि असंशयम्” के विश्वास के साथ हो रही है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण का यह उपदेश केवल अर्जुन को नहीं, हर कर्मयोगी साधक के लिए है।
संदेश स्पष्ट है —
“स्मरण में भक्ति हो और कर्म में योग हो — तभी जीवन सफल है।”
यह श्लोक कर्म और भक्ति के समन्वय का जीवन-मंत्र है।
जो साधक हर समय ईश्वर का स्मरण करता है, और कर्तव्य भी निभाता है,
उसके लिए मोक्ष निश्चित है — इसमें असंशयम्।
यह गीता का आह्वान है — कर्म करो, पर ईश्वर-स्मृति में डूबकर।
यही मोक्ष का सहज और श्रेष्ठ मार्ग है।